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प्रचीन भारत, जिसके ये है 8 सबूत | दुनिया के बाकी देशों से बहुत आगे था प्रचीन भारत,

धर्म, दर्शन, विज्ञान, वास्तु, ज्योतिष, खगोल, स्थापत्य कला, नृत्य कला, संगीत कला आदि सभी तरह के ज्ञान का जन्म भारत में हुआ है

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भारत में प्राचीनकाल से ही ज्ञान को अत्यधिक महत्व दिया गया है। कला, विज्ञान, गणित और ऐसे अनगिनत क्षेत्र हैं जिनमें भारतीय योगदान अनुपम है। आधुनिक युग के ऐसे बहुत से आविष्कार हैं, जो भारतीय शोधों के निष्कर्षों पर आधारित हैं। आइए जानते हैं कौन-कौन-सी है, वह खोज जो विश्व को भारत की देन हैं।

धर्म, दर्शन, विज्ञान, वास्तु, ज्योतिष, खगोल, स्थापत्य कला, नृत्य कला, संगीत कला आदि सभी तरह के ज्ञान का जन्म भारत में हुआ है ऐसा कहने में कोई गुरेज नहीं, क्योंकि इसके हजारों सबूत हैं। मध्यकाल में भारतीय गौरव को नष्ट किया गया और आज का तथाकथित भारतीय व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता को महान समझता है।

विश्व के पहले विश्वविद्यालय की स्थापना : बौद्धकाल में भारत में कई विश्‍वविद्यालय मौजूद थे, जहां विश्‍वभर के छात्र पढ़ने आते थे। तिब्बत, नेपाल, श्रीलंका, अरब, यूनान और चीन के छात्रों की संख्या अधिक होती थी।

प्राचीनकाल के तीन विश्‍वविद्यालयों का उल्लेख मिलता है- पहला तक्षशिला का विश्वविद्यालय, दूसरा नालंदा विश्वविद्यालय और तीसरा विक्रमशिला विश्वविद्यालय।
तक्षशिला को विश्‍व का पहला विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है। कुछ विद्वान नालंदा को पहला विश्व विद्यालय मानते हैं। तक्षशिला प्राचीन भारत के गांधार जनपद की राजधानी का नाम तक्षशिला था। यहीं पर यह विश्वविद्यालय 700 ईसा पूर्व स्थापित किया गया था। तक्षशिला वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के रावलपिंडी जिले की एक तहसील है। अब यहां इस विश्‍वविद्यालय के खंडहर ही विद्यमान हैं। चौथी शताब्दी ईसापूर्व से ही भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमण होने लगे थे। अंततः छठी शताब्दी में यह विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दिया।

तक्षशिला विश्वविद्यालय में करीब 10,500 विद्यार्थी भारतीय और विदेशी छात्र अध्ययन करते थे जिन्हें करीब 2,000 विद्वान शिक्षकों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती थी। उल्लेखनीय है कि पाणिनी, कौटिल्य (चाणक्य), चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी।

कहा जाता है कि यहां 60 से भी ज्यादा विषयों को पढ़ाया जाता था और यहां एक विशालकाय ग्रंथालय भी था। महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहां वेद-वेदांत, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्ध विद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, खगोल, गणित, चिकित्सा, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मंत्र-विद्या, विविध भाषाएं, शिल्प, गणना, संख्यानक, वाणिज्य, सर्पविद्या, तंत्रशास्त्र, संगीत, नृत्य, चित्रकला, मनोविज्ञान, योगविद्या, कृषि, भू-विज्ञान आदि की शिक्षाएं दी जाती थीं।

तक्षशिला नगर का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। रामायण के अनुसार भारत के तक्ष और पुष्कल नामक दोनों पुत्रों ने तक्षशिला और पुष्करावती नामक दो नगर बसाए थे। तक्षशिला सिंधु नदी के पूर्वी तट पर थी।

सभी भाषाओं की जननी संस्कृत : संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी माना जाता है, लेकिन अब अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग भाषा हो चली है जबकि संस्कृत से ही सभी यूरोपीय भाषाओं का जन्म हुआ।

संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। ‘संस्कृत’ का शाब्दिक अर्थ है ‘परिपूर्ण भाषा’। संस्कृत से पहले दुनिया छोटी-छोटी, टूटी-फूटी बोलियों में बंटी थी जिनका कोई व्याकरण नहीं था और जिनका कोई भाषाकोष भी नहीं था। कुछ बोलियों ने संस्कृत को देखकर खुद को विकसित किया और वे भी एक भाषा बन गईं।

संस्कृत भाषा के व्याकरण ने विश्वभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाषा कम्प्यूटर के उपयोग के लिए सर्वोत्तम भाषा है। मात्र 3,000 वर्ष पूर्व तक भारत में संस्कृत बोली जाती थी तभी तो ईसा से 500 वर्ष पूर्व पाणिनी ने दुनिया का पहला व्याकरण ग्रंथ लिखा था, जो संस्कृत का था। इसका नाम ‘अष्टाध्यायी’ है। यदि संस्कृत व्यापक पैमाने पर नहीं बोली जाती तो व्याकरण लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती।

अष्टाध्यायी जिसमें 8 अध्याय और लगभग 4 सहस्र सूत्र हैं। व्याकरण के इस महनीय ग्रंथ में पाणिनी ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4,000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संग्रहीत किए हैं। 19वीं सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी फ्रेंज बॉप (14 सितंबर 1791-23 अक्टूबर 1867) ने पाणिनी के कार्यों पर शोध किया। उन्हें पाणिनी के लिखे हुए ग्रंथों तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के सूत्र मिले। आधुनिक भाषा विज्ञान को पाणिनी के लिखे ग्रंथ से बहुत मदद मिली। दुनिया की सभी भाषाओं के विकास में पाणिनी के ग्रंथ का योगदान है।

1100 ईसवीं तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोड़ने की प्रमुख कड़ी थी। संस्कृत को उस काल में कुछ लोग ब्राह्मी लिपि में तो अधिकतर देवनागरी लिपि में लिखते थे। भारत में आज जितनी भी भाषाएं बोली जाती हैं वे सभी संस्कृत से जन्मी हैं जिनका इतिहास मात्र 1500 से 2000 वर्ष पुराना है। उन सभी से पहले संस्कृत, प्राकृत, पाली, अर्धमागधि आदि भाषाओं का प्रचलन था।

भारत में आज जितनी भी भाषाएं बोली जाती हैं, वे सभी संस्कृत से जन्मी हैं जिनका इतिहास मात्र 1500 से 2000 वर्ष पुराना है। उन सभी से पहले संस्कृत, प्राकृत, पाली, अर्धमागधि आदि भाषाओं का प्रचलन था।

आदिकाल में भाषा नहीं थी, ध्वनि संकेत थे। ध्वनि संकेतों से मानव समझता था कि कोई व्यक्ति क्या कहना चाहता है। फिर चित्रलिपियों का प्रयोग किया जाने लगा। प्रारंभिक मनुष्यों ने भाषा की रचना अपनी विशेष बौद्धिक प्रतिभा के बल पर नहीं की। उन्होंने अपने-अपने ध्वनि संकेतों को चित्र रूप और फिर विशेष आकृति के रूप देना शुरू किया। इस तरह भाषा का क्रमश: विकास हुआ। इसमें किसी भी प्रकार की बौद्धिक और वैज्ञानिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया।indian history

संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है जिसकी रचना की गई हो। इस भाषा की खोज की गई है। भारत में पहली बार उन लोगों ने सोचा-समझा और जाना कि मानव के पास अपनी कोई एक लिपियुक्त और मुकम्मल भाषा होना चाहिए जिसके माध्यम से वह संप्रेषण और विचार-विमर्श ही नहीं कर सके बल्कि जिसका कोई वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार भी हो। ये वे लोग थे, जो हिमालय के आसपास रहते थे।

उन्होंने ऐसी भाषा को बोलना शुरू किया, जो प्रकृतिसम्मत थी। पहली दफे सोच-समझकर किसी भाषा का आविष्कार हुआ था तो वो संस्कृत थी। चूंकि इसका आविष्कार करने वाले देवलोक के देवता थे तो इसे देववाणी कहा जाने लगा। संस्कृत को देवनागरी में लिखा जाता है। देवता लोग हिमालय के उत्तर में रहते थे।

दुनिया की सभी भाषाओं का विकास मानव, पशु-पक्षियों द्वारा शुरुआत में बोले गए ध्वनि संकेतों के आधार पर हुआ अर्थात लोगों ने भाषाओं का विकास किया और उसे अपने देश और धर्म की भाषा बनाया। लेकिन संस्कृत किसी देश या धर्म की भाषा नहीं यह अपौरूष भाषा है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति और विकास ब्रह्मांड की ध्वनियों को सुन-जानकर हुआ। यह आम लोगों द्वारा बोली गई ध्वनियां नहीं हैं।

धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है चाहे वस्तु स्थिर हो या गतिमान। गति होगी तो ध्वनि निकलेगी, ध्वनि होगी तो शब्द निकलेगा। देवों और ऋषियों ने उक्त ध्वनियों और शब्दों को पकड़कर उसे लिपि में बांधा और उसके महत्व और प्रभाव को समझा।

संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है।
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ब्रह्मांड की ध्वनियों के रहस्य के बारे में वेदों से ही जानकारी मिलती है। इन ध्वनियों को अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के संगठन नासा और इसरो ने भी माना है।

कहा जाता है कि अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किंतु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अंत:स्थ और ऊष्म वर्गों में बांटा गया है।

 

पाई के मूल्य की गणना : बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्व सूत्र तथा श्रौत सूत्र के रचयिता हैं। पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्या‍मितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं।

दरअसल, 2800 वर्ष (800 ईसापूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी। उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था।

शुल्व शास्त्र के आधार पर विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाई जाती थीं। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौधायन ने सुलझाया

शून्य का आविष्कार : शू्न्य नहीं होता तो आधुनिक विकास भी शून्य ही होता। शून्य से पहले दुनियाभर में कई तरह की अंक प्रणालियां विकसित थीं। उत्तर वैदिक काल में शून्य के आविष्कार के बाद गणित में एक क्रांति हो गई।

अंकों के मामले में विश्व भारत का ऋणी है। भारत ने अंकों के अलावा शून्य की खोज की। बीज गणित, त्रिकोणमिति और कलन की खोज भारत में ही हुई थी। स्‍थान मूल्‍य प्रणाली और दशमलव प्रणाली का विकास भी भारत में हुआ था।

2500 वर्ष प्राचीन उपलब्ध संस्कृत दस्तावेजों में भारतीयों द्वारा गणित के क्षेत्र में की गई खोजों की समृद्ध परंपरा का विवरण मिलता है। प्रारंभिक वैदिक काल (1200-600 ईसा पूर्व) में संख्याओं की दशमलव प्रणाली और अंकगणित तथा रेखागणित के नियम विकसित हो चुके थे। इन्हें मंत्रों, स्तोत्रों, स्तुतियों, श्रापों, श्लोकों, ऋचाओं और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों की एक जटिल प्रणाली में लिपिबद्ध किया गया था। मंदिर के निर्माण और यज्ञ वेदियों की रचना के नियम बनाए गए थे और इन्हें सूत्रों के रूप में बांधा गया था। उस समय के गणितज्ञ या ऋषि वायु, आकाश, दिन के समय, आकाशीय पिंडों आदि की स्तुति को दस की घात की ऐसी संख्याओं में व्यक्त किया जाता था, जो प्राय: दस अरब तक पहुंच जाती थीं।

उत्तर वैदिक काल में रेखागणित के सूत्रों का विकास हुआ, जो शुल्व सूत्रों के रूप में उपलब्ध है। बोधायन शुल्व सूत्र को ही आज हम पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जानते हैं जिसकी खोज आज से 3000 वर्ष पूर्व की जा चुकी थी।

एक कहानी के अनुसार भगवान बुद्ध ने अपनी होने वाली पत्नी को जीतने के लिए आंकड़ों की बड़ी-बड़ी श्रृंखलाएं अपनी याददाश्त के आधार पर सुना दी थीं। बौद्धकाल में दुनिया अपने ज्ञान के चरम पर थी। तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला नामक महानतम विश्‍वविद्यालयों में विश्वभर के लोग पढ़ने आते थे और वहां ज्योतिष, गणित, खगोल और धर्म के सूत्रों को समझते थे।

भारत में लगभग 200 ईसा पूर्व छंद शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य हुए हैं (चाणक्य के बाद) जिन्हें द्विअंकीय गणित का भी प्रणेता माना जाता है। इसी काल में पाणिनी हुए हैं जिनको संस्कृत का व्याकरण लिखने का श्रेय जाता है। अधिकतर विद्वान पिंगलाचार्य को शून्य का आविष्कारक मानते हैं।

पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को यदि गणितीय दृष्टि से देखें तो एक तरह से वे द्विअंकीय (बाइनरी) गणित का कार्य करते हैं और दूसरी दृष्टि से उनमें दो अंकों के घन समीकरण तथा चतुर्घाती समीकरण के हल दिखते हैं। गणित की इतनी ऊंची समझ के पहले अवश्य ही किसी ने उसकी प्राथमिक अवधारणा को भी समझा होगा अत: भारत में शून्य की खोज ईसा से 200 वर्ष से भी पुरानी हो सकती है।

गणित के एक बहुमूल्य ग्रंथ बख्शाली पाण्डुलिपि के कुछ पन्ने सन् 1881 में खैबर क्षेत्र में बख्शाली गांव के निकट बहुत ही जीर्ण अवस्था में मिले थे। ये भोज पत्र पर लिखे गए हैं। इनकी भाषा के आधार पर अधिकांश विद्वान इन्हें 200 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी का मानते हैं। यह ग्रंथ इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह शुल्व सूत्री (वैदिक) गणित के ईसा पूर्व 800 से लेकर ईसा पूर्व 500 के काल के बाद के गणितीय रूप को दर्शाता है। इस पाण्डुलिपि में शून्य का जिक्र है।

भारत में उपलब्ध गणितीय ग्रंथों में 300 ईस्वी पूर्व का भगवती सूत्र है जिसमें संयोजन पर कार्य है तथा 200 ईस्वी पूर्व का स्थनंग सूत्र है जिसमें अंक सिद्धांत, रेखागणित, भिन्न, सरल समीकरण, घन समीकरण, चतुर्घाती समीकरण तथा मचय (पर्मुटेशंस) आदि पर कार्य हैं। सन् 200 ईस्वी तक समुच्चय सिद्धांत के उपयोग का उल्लेख मिलता है और अनंत संख्या पर भी बहुत कार्य मिलता है।

गुप्तकाल की मुख्‍य खोज शून्य नहीं, मुख्य खोज है ‘शून्ययुक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली।’ गुप्त काल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए। इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है।

आर्यभट्ट (जन्म 476 ई) को शून्य का आविष्कारक नहीं माना जा सकता। आर्यभट्ट ने एक नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया था। इसके अलावा गुप्तकाल में ही ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य आदि श्रेष्ट गणितज्ञ हुए जिनके कारण भारतीय गणित का विश्‍वभर में नए सिरे से प्रचार-प्रसार हुआ।

 

आयुर्वेद और योग : आयुर्वेद मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे आरंभिक चिकित्‍सा शाखा है, तो योग धर्म का स्पष्ट और विष्पक्ष मार्ग। योग ऐसी विद्या है जिसमें भौतिक, मा‍नसिक और आध्यात्मिक आदि सभी समस्याओं का समाधान आठ अंगों में समेट दिया गया है। योग से बाहर धर्म और अध्यात्म की कल्पना नहीं की जा सकती।

आयुर्वेद का आविष्‍कार भी ऋषि-मुनियों में अपने मोक्ष मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए ही किया था लेकिन बाद में इसने एक चिकित्सा पद्धति का रूप ले लिया। आयुर्वेद प्रकृति के अनुसार जीवन जीने की सलाह देता है। सेहतमंद बने रहकर मोक्ष प्राप्त करना ही भारतीय ऋषियों का उद्देश्य रहा है। आयुर्वेद कहता भी है कि ‘पहला सुख निरोगी काया’।

आयुर्वेद मानता है कि हमारी अधिकतर बीमारियों का जन्म स्थान हमारा दिमाग है। इच्छाएं, भाव, द्वेष, क्रोध, लालच, काम आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों से कई तरह के रोग उत्पन्न होते हैं। योग भी यही कहता है इसीलिए योग में पहले चित्त वृत्तियों के निरोध की बात कही गई है। भारत की विश्व को सबसे बड़ी देन योग और आयुर्वेद है। आधुनिक विज्ञान और मनुष्य दोनों के महत्व को समझने लगा है तभी तो समूचा योरप और अमेरिका आयुर्वेद और योग की शरण में है।

धन्वंतरि, चरक, च्यवन और सुश्रुत को आयुर्वेद को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय जाता है। अथर्ववेद में आयुर्वेद के कई सूत्र मिल जाएंगे। धन्वंतरि, चरक, च्यवन और सुश्रुत ने विश्व को पेड़-पौधों और वनस्पतियों पर आधारित एक चिकित्साशास्त्र दिया। आयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है।

ऋषि चरक ने 300-200 ईसापूर्व आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘चरक संहिता’ लिखा था। उन्हें त्वचा चिकित्सक भी माना जाता है। आचार्य चरक ने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरणशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादि विषय में गंभीर शोध किया तथा मधुमेह, क्षयरोग, हृदय विकार आदि रोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान को बताया।

चरक एवं सुश्रुत ने अथर्ववेद से ज्ञान प्राप्त करके 3 खंडों में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे। उन्होंने दुनिया के सभी रोगों के निदान का उपाय और उससे बचाव का तरीका बताया, साथ ही उन्होंने अपने ग्रंथ में इस तरह की जीवनशैली का वर्णन किया जिसमें कि कोई रोग और शोक न हो।

आठवीं शताब्दी में चरक संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा। चरक और च्यवन ऋषि के ज्ञान पर आधारित ही यूनानी चिकित्सा का विकास हुआ।

खगोल विज्ञान की उत्पत्ति : संपूर्ण विश्व को खगोल विज्ञान देने का श्रेय भारत को ही जाता है। वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। इससे पहले वेद वाचिक परंपरा द्वारा संरक्षित रखे गए थे। वाचिक परंपरा जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है।
ऋग्वेद में खगोल विज्ञान से संबंधित 30 श्लोक हैं, यजुर्वेद में 44 तथा अथर्ववेद में 162 श्लोक हैं। यूरेनस को एक राशि में आने के लिए 84 वर्ष, नेप्चून को 1648 वर्ष तथा प्लूटो को 2844 वर्षों का समय लगता है। वैदिक काल में खगोल विज्ञान को ज्योतिष कहा जाता था। गुप्तकाल में वेदों के इस खगोलीय विज्ञान को भविष्य देखने के विज्ञान में बदल दिया गया, जो कि भारत के लिए दुर्भाग्य साबित हुआ।

वेदांगा ज्योतिशा में सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्रों, सौरमंडल के ग्रहों और ग्रहण के विषय में जानकारी दी गई है। वेदों के ज्योतिष अंग में संपूर्ण ब्रह्मांड की गति और स्थिरता का विवरण मिलता है। आर्यभट्ट ने वेद, उपनिषद आदि का अध्ययन करके के बाद ही कहा था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर रहते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है। आर्यभट्ट ने इस रहस्य को विस्तार से बताकर विश्‍व के समक्ष रखा। आज का आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है। उन्होंने ने पांचवीं सदी में यह बताया था कि पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में 356 दिन 5 घंटे और 48 सेकंड का समय लेती है।

शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी : जी हां, प्लास्टिक सर्जरी के आविष्कार से दुनिया में क्रांति आ गई। पश्चिम के लोगों के अनुसार प्लास्टिक सर्जरी आधुनिक विज्ञान की देन है। प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- ‘शरीर के किसी हिस्से को ठीक करना।’ भारत में सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है। आज से करीब 2,600 साल पहले सुश्रुत युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनके अंग-भंग हो जाते थे या नाक खराब हो जाती थी, तो उन्हें ठीक करने का काम करते थे।
सुश्रुत ने 1,000 ईसापूर्व अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, हड्डी जोड़ना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे। हालांकि कुछ लोग सुश्रुत का काल 800 ईसापूर्व का मानते हैं। सुश्रुत से पहले धन्वंतरि हुए थे।

सुश्रुत को दिमाग में शल्यक्रिया और प्लास्टिक सर्जरी करने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने अपने साथियों के साथ 3,000 से भी ज्यादा शल्यक्रियाएं की थीं। उन्हें 125 चिकित्सकीय औजारों में सिद्धहस्त माना जाता था।

आधुनिक विज्ञान केवल 400 वर्ष पूर्व ही शल्यक्रिया करने लगा है, लेकिन सुश्रुत ने 2600 वर्ष पूर्व यह कार्य करके दिखा दिया था। सुश्रुत के पास अपने बनाए उपकरण थे जिन्हें वे उबालकर प्रयोग करते थे।

महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुत संहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में चाकू, सुइयां, चिमटे इत्यादि सहित 125 से भी अधिक शल्य चिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणों के नाम मिलते हैं और इस ग्रंथ में लगभग 300 प्रकार की सर्जरियों का उल्लेख मिलता है।

गुरुत्वाकर्षण की खोज : भास्कराचार्य प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है। न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण के नियम को जान लिया था और उन्होंने अपने दूसरे ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में इसका उल्लेख भी किया है।

गुरुत्वाकर्षण के नियम के संबंध में उन्होंने लिखा है, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्वशक्ति से अपनी ओर खींच लेती है इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है।’ इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है।

भास्कराचार्य द्वारा ग्रंथ ‘लीलावती’ में गणित और खगोल विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्यग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढंक लेती है तो चन्द्रग्रहण होता है। यह पहला लिखित प्रमाण था जबकि लोगों को गुरुत्वाकर्षण, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक जानकारी थी।

शतरंज के आविष्कार का श्रेय भारत को ही जाता है, क्योंकि प्राचीनकाल से ही इसे भारत में खेला जाता रहा है। इसका धर्मग्रंथों और प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य में उल्लेख मिलता है। इस खेल की उत्पत्ति भारत में कब और कैसे हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। एक किंवदंती है कि इस खेल का आविष्कार लंका के राजा रावण की रानी मंदोदरी ने इस उद्देश्य से किया था कि उसका पति रावण अपना सारा समय युद्ध में व्यतीत न कर सके। एक पौराणिक मत यह भी है कि रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी ने इस खेल का प्रारंभ किया था।

7वीं शती के सुबंधु रचित ‘वासवदत्ता’ नामक संस्कृत ग्रंथ में भी इसका उल्लेख मिलता है। बाणभट्ट रचित हर्षचरित्र में भी चतुरंग नाम से इस खेल का उल्लेख किया गया है। इससे स्पष्ट है कि यह एक राजसी खेल था, प्राचीनकाल में इसे चतुरंग अर्थात सेना का खेल कहा जाता था। चतुरंग में चार अंग होते थे- पैदल, अश्वारोही, रथ और गज इसीलिए इस खेल के नियम बहुत कुछ युद्ध जैसी प्रथा पर आधारित हैं।

‘अमरकोश’ के अनुसार इसका प्राचीन नाम ‘चतुरंगिनी’ था जिसका अर्थ 4 अंगों वाली सेना था। गुप्त काल में इस खेल का बहुत प्रचलन था। पहले इस खेल का नाम चतुरंग था लेकिन 6ठी शताब्दी में फारसियों के प्रभाव के चलते इसे शतरंग कहा जाने लगा। यह खेल ईरानियों के माध्‍यम से यूरोप में पहुंचा तो इसे चैस कहा जाने लगा।

छठी शताब्दी में यह खेल महाराज अन्नुश्रिवण के समय (531-579 ईस्वी) भारत से ईरान में लोकप्रिय हुआ तब इसे ‘चतुरआंग’, ‘चतरांग’ और फिर कालांतर में अरबी भाषा में ‘शतरंज’ कहा जाने लगा।

सांप-सीढ़ी इसे मोक्ष-पट भी कहते हैं। बच्चों का खेल सांप-सीढ़ी विश्वभर में प्रचलित है और लगभग हर बच्चे ने यह खेला है, लेकिन क्या भारतीय बच्चे यह जानते हैं कि इस खेल का आविष्कार भारत में हुआ है? इस खेल को सारिकाओं या कौड़ियों की सहायता से खेला जाता था।

सांप-सीढ़ी के खेल का वर्तमान स्वरूप 13वीं शताब्‍दी में कवि संत ज्ञानदेव द्वारा तैयार किया गया था।

यह खेल भारतीयों को नैतिकता का पाठ पढ़ाता था। 17वीं शताब्दी में यह खेल थंजावर में प्रचलित हुआ। बाद में इसके आकार में वृद्धि की गई तथा कई अन्य बदलाव भी किए गए। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विक्टोरियन काल के अंग्रेजों को भी भा गई और वे इस खेल को 1892 में इंग्लैंड ले गए। वहां से यह खेल अन्य योरपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एंड लेडर्स के नाम से फैल गया।

इतिहास की किताबों और स्कूलों के कोर्स में पढ़ाया जाता है कि विमान का आविष्कार राइट ब्रदर्स ने किया, लेकिन यह गलत है। हां, यह ठीक है कि आज के आधुनिक विमान की शुरुआत ओरविल और विल्बुर राइट बंधुओं ने 1903 में की थी। लेकिन उनसे हजारों वर्ष पूर्व ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र लिखा था जिसमें हवाई जहाज बनाने की तकनीक का वर्णन मिलता है।

चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित ‘वैमानिक शास्त्र’ में एक उड़ने वाले यंत्र ‘विमान’ के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए थे।

‘गोधा’ ऐसा विमान था, जो अदृश्य हो सकता था। ‘परोक्ष’ दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। ‘प्रलय’ एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था। ‘जलद रूप’ एक ऐसा विमान था, जो देखने में बादल की भांति दिखता था।

स्कंद पुराण के खंड 3 अध्याय 23 में उल्लेख मिलता है कि ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी के लिए एक विमान की रचना की थी जिसके द्वारा कहीं भी आया-जाया सकता था। रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था।
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जहाज का आविष्कार : नौवहन की कला और नौवहन का जन्‍म 6,000 वर्ष पहले सिंध नदी में हुआ था। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्‍कृ‍त शब्‍द नवगति से उत्‍पन्‍न हुआ है। शब्‍द नौसेना भी संस्‍कृत शब्‍द नोउ से हुआ।

कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात नदी पर बसे प्राचीन खल्द देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है । याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है।

ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में भारत अभियान से लौटते समय सिंकदर महान् के सेनापति निआर्कस ने अपनी सेना को समुद्रमार्ग से स्वदेश भेजने के लिये भारतीय जहाजों का बेड़ा एकत्रित किया था। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में निर्मित सांची स्तूप के पूर्व तथा पश्चिमी द्वारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य जहाजों की प्रतिकृतियां भी हैं।

भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है। भगवान राम ने यमुना पार करने के लिए नौका का ही उपयोग किया था।

रेडियो : इतिहास की किताब में बताया जाता है कि रेडियो का आविष्कार जी. मार्कोनी ने किया था, लेकिन यह सरासर गलत है। अंग्रेज काल में मार्कोनी को भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु के लाल डायरी के नोट मिले जिसके आधार पर उन्होंने रेडियो का आविष्कार किया।

मार्कोनी को 1909 में वायरलेस टेलीग्राफी के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन संचार के लिए रेडियो तरंगों का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन मिलीमीटर तरंगें और क्रेस्कोग्राफ सिद्धांत के खोजकर्ता जगदीश चंद्र बसु थे जिन्होंने यह खोज 1895 में की थी।

इसके 2 साल बाद ही मार्कोनी ने प्रदर्शन किया और सारा श्रेय वे ले गए। चूंकि भारत उस समय एक गुलाम देश था इसलिए जगदीश चंद्र बसु को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। दूसरी ओर वे अपने आविष्कार का पेटेंट कराने में असफल रहे जिसके चलते मार्कोनी को रेडियो का आविष्कारक माना जाने लगा। संचार की दुनिया में रेडियो का आविष्कार सबसे बड़ी सफलता है। आज इसके आविष्कार के बाद ही टेलीविजन और मोबाइल क्रांति संभव हो पाई है।

 

परमाणु सिद्धांत के आविष्कारक : परमाणु बम के बारे में आज सभी जानते हैं। यह कितना खतरनाक है यह भी सभी जानते हैं। आधुनिक काल में इस बम के आविष्कार हैं- जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 कई वैज्ञानिकों ने काम किया और 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परीक्षण किया गया।

हालांकि परमाणु सिद्धांत और अस्त्र के जनक जॉन डाल्टन को माना जाता है, लेकिन उनसे भी 2500 वर्ष पर ऋषि कणाद ने वेदों वे लिखे सूत्रों के आधार पर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।

भारतीय इतिहास में ऋषि कणाद को परमाणुशास्त्र का जनक माना जाता है। आचार्य कणाद ने बताया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे।

विख्यात इतिहासज्ञ टीएन कोलेब्रुक ने लिखा है कि अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ यूरोपीय वैज्ञानिकों की तुलना में विश्वविख्यात थे।

 

बिजली का आविष्कार : महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। निश्चित ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।

अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव कहते हैं

धर्म आधारित व्यवस्था : सैकड़ों हजार वर्ष पूर्व लोग कबीले, समुदाय, घुमंतू वनवासी आदि में रहकर जीवन-यापन करते थे और उनकी भिन्न-भिन्न विचारधाराएं थीं। उनके पास कोई स्पष्ट न तो शासन व्यवस्था थी और न ही कोई सामाजिक व्यवस्था। परिवार, संस्कार और धर्म की समझ तो बिलकुल नहीं थी। ऐसे में भारतीय हिमालयीन क्षेत्र में कुछ मुट्ठीभर लोग थे, जो इस संबंध में सोचते थे। उन्होंने ही वेद को सुना और उसे मानव समाज को सुनाया। जब कई मानव समूह 5000 साल पहले ही घुमंतू वनवासी या जंगलवासी थे, भारतीय सिंधु घाटी में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना हो चुकी थी। उल्लेखनीय है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज कबीले में नहीं रहा। वह एक वृहत्तर और विशेष समुदाय में ही रहा।

प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। इससे पहले वेद वाचिक परंपरा द्वारा संरक्षित रखे गए थे। वाचिक परंपरा, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है। इसका मतलब यह कि आज से कम से कम 12 हजार वर्ष पूर्व वेद ज्ञान को प्रमुख चार ऋषियों ने अपने शिष्यों को सुनाया। ये चार ऋषि थे- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।

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यूनेस्को के अनुसार वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सहित संसार की हर वह बात है, जो आज का आधुनिक मानव जानता है। वेद के ज्ञान की कई शाखाएं बन गईं। उन्हीं में से एक श्रमण और दूसरी ब्राह्मण थी। उक्त दोनों शाखाओं के माध्यम से ही दुनिया के अन्य समाजों और धर्मों की उत्पत्ति हुई। प्रारंभ में ये दो तरह की विचारधाराएं अस्तित्व में आईं। ब्राह्मण वे जो ईश्वर को ही सत्य माने और श्रमण वे जो आत्मा को ही सर्वोच्च मानकर मोक्ष की कामना करें। बाद में उक्त दो विचारधाराओं को व्यवस्थित रूप दिया गया।

जब विचारधाराओं के आधार पर समाज बंटा तो वैदिक और जिन दो धर्मों की उत्पत्ति हुई। भगवान ऋषभनाथ से जिन परंपरा की शुरुआत हुई तो भगवान कृष्ण के काल में समानत परंपरा की शुरुआत हुई। आजकल वैदिक धर्म को हिन्दू धर्म कहा जाता है जिसमें कई तरह की अंतरविरोधी विचारधाराएं भी समाहित हो गई हैं।

बाद में लगभग 2500 वर्ष पूर्व अर्थात ईसा से 500 वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने मुनियों और विदेहियों की इस जिन परंपरा को स्पष्ट रूप से गठित कर एक सरल मार्ग के रूप में बदला। इसके कारण क्रमश: इस परंपरा ने जैन धर्म के रूप में आकार ले लिया।

महावीर स्वामी के दौर में गौतम बुद्ध की प्रसिद्धि हो गई थी। गौतम बुद्ध के ज्ञान का इतना व्यापक असर हुआ कि 500 ईस्वी पूर्व एक नया धर्म अस्तित्व में आ गया जिसे ‘बौद्ध धर्म’ कहा जाने लगा।

उक्त दोनों ही विचारधारा से अलग बौद्ध विचारधारा का भी भारत में ही जन्म हुआ। भगवान बुद्ध ने एक तीसरा मार्ग अपनाया। उन्होंने वेदों के अस्तित्ववाद और अनात्मवाद को मिला दिया। करीब 2,500 साल पहले सिद्धार्थ गौतम ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। बौद्ध धर्म सम्यक जीवनशैली को महत्व देता है अर्थात मध्यम मार्ग।

बहुत बाद में मध्यकाल में सिख धर्म स्थापना हुई। 15वीं शताब्‍दी में सिख धर्म के संस्‍थापक गुरुनानक ने एकेश्‍वर और भाईचारे पर बल दिया। भारत के पंजाब में इस धर्म की उत्पत्ति हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ रहे वैमनस्य के चलते हुई। बाद में इस्लामिक अत्याचार से कश्मीरी पंडितों और देश के अन्य भागों से भाग रहे हिन्दुओं को बचाने के लिए ‘खालसा पंथ’ की स्थापना हुई।

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